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Thursday, 13 December 2018

Peace



Let’s not pollute
By teaching religion

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                                                   Linked to: Poets United

Wednesday, 24 October 2018

Coma

                                                     
                                                     
                                                               Memories’ quartz
Dust of time,
Quiet flows
Rivulet of images,
Ardours plash
And feelings gale,
Dreams murmur
Desires stretch.
Between us but
Icicles in coma!


(Image by Google)

Linked to: Poets United: Winter

Tuesday, 27 February 2018

'वो'



                         अनंत ख़ामोशी
                         अपलक चाँदनी
                         कसक  चैत्र की
                         जंगल में खिले
                         मादक महुए से
                         हो कभी मिले?







Monday, 9 October 2017

काई

लो आज फिर  घटा घिर आई
टीस कोई भूली फिर से उठ आई

दिन महीने साल यूँ ही भाग रहे हैं
ज़िन्दग़ी किसी मोड़ पे ठिठकी सी नज़र आई

आमों के दरख़्त तो अब वीरान पड़े हैं
कोयल मुझे इक दिन कीकर पे नज़र आई

नग़मे प्यार के  सब भूल चुके हैं
उजड़ी हुई कहानी याद मगर फिर आई

मेड़ों उगी दूब भी अब सूख चली है
दिल की बावड़ी में बस काई ही काई!


(Image from Google)


Friday, 15 September 2017

क़ीमती

ड्रॉअर में बस यूँ ही पड़ी
सस्ती शराब की बोतल हूँ
'बार' में सजा क़ीमती स्कॉच
का ख़ाली डिब्बा नहीं!

चाहें तो पियें
और मस्त हो जाएँ
या फिर डिब्बों को निहारें
मन बहलायें.

हाँ, अगर पियें
तो ज़रा संभल कर
ज़ोर का धक्का लगेगा,

डिब्बों से कोई डर नहीं
सजावटी सामान है
बरसों यूँ ही रहेगा.


Wednesday, 26 April 2017

लेस्बियन्स

                                                                     


कोमलांगी सुरमई शाम को
कामुक सलेटी रात ने
अंक में भरना
चाहा ही था
कि दोनों का सखा
गोरा-चिट्टा चाँद
मुस्कुरा उठा
और शरारत से बोला
लो मैं गया
तुम दोनों को
ख़ुश  करने के लिए.

जल कर काली हुई रात
फुंकार कर बोली
हम हैं मुक्त
किसी की अधीन नहीं
ख़ुद अपने में पूर्ण
हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं..

फिर  उसने अपने
जलते हुए होंठ
क़मसिन शाम के
प्यासे होठों पर रख दिए :
'छुन्न' का शब्द हुआ
और आहत चाँद कुएँ  में जा गिरा!
                                                           
Both images from Google



Monday, 17 April 2017

उम्मीद

                                                           
Image from Google

उम्र अड़सठ  वर्ष
ख़ुद की मोटी पेन्शन भी,
उसके कमाऊ बेटों ने
उसे पेसमेकर लगवाया
दस साल चलने वाला
पच्चीस  साल वाला  नहीं,
जाने क्या सोच कर..
पैसों की तो कोई
कमी    थी!

Sunday, 9 April 2017

नज़ारा..

                                         
Image from Google
                                   
हँसता हुआ गधा
दिख जाता है मुझे अक्सर
प्राधिकरण के दफ़्तर में
कचहरी में, सरकारी गलियारों में..

लदड़-फ़दड़ कछुआ
फाइलों का बोझ ढोता
मालिकों-अधिकारियों के
जूते खाता ; चलता जाता.

निढाल हिरन उदास
सूखी-पीली घास के पास
चतुर लोमड़ सलाम बजाता
ख़ूनी भेड़िया आँखें झपकाता

साँडों, भैंसों के रेवड़
कीचड़ में धँसे
निकलने की कोशिशों में
और फँसे और फँसे

इन सब से उदासीन
अँधेरे में पड़ा ख़ामोश
अजगर एक साँस खींचता
पल भर में सब को लीलता !

Tuesday, 7 March 2017

वो सुरमई शाम

                                                               
Image from Google

बुना जब  करते
फन्दा-दर-फन्दा
अँधेरा-उजाला
ख़ुद  आप को

पहरे पे ख़ामोशी ,
आग़ोश  में
क़ैद हुआ करती -
क़ायनात  सारी

वो सुरमई शाम
आँखें, शोख़ आँखों से
बयाँ  करतीं
कितने  अफ़्साने

चार होंठ प्यासे
नामुराद - झूठे, बेशर्म ,
नदीदे , कमज़र्फ
पी पी के मुकर जाते

ज़िद्दी ज़ुल्फ़  मग़रूर -
शरीर, शैतान,
बीच में आती
करती परेशान

दहकते अरमान
सर्द आहें
महकते साँस
बेचैन निगाहें

वो सुरमई शाम
फिर कभी आयेगी?
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Key:
फन्दा-दर-फन्दा = stitch by stitch 
आग़ोश = embrace
क़ायनात = universe
अफ़्साने   =   romance
नामुराद = dissatisfied
नदीदे  =  greedy
कमज़र्फ  =  ungrateful
मुकर = deny
मग़रूर = arrogant
शरीर = wicked
_____________________________________________

भरसक कोशिश करता हूँ कि दैहिक लिखूँ लेकिन कभी-कभी क़लम फिसल ही जाती है कमबख़्त ...
यथासम्भव प्रयास रहता है कि लिखा हुआ बस मेरा ही रह जाये पर कभी बिना प्रकाशित किये लगता है कि अधूरा रह गया..
'वो रुपहली साँझ आये'  एक पारलौकिक,  रूहानी, लगभग आध्यात्मिक रचना है,  और 'सुरमई शाम' पूर्णतयाः जिस्मानी, ऐन्द्रिय, विषयासक्त ; लेकिन मुझे लगता है कि क्योंकि रूह का अहसास  जिस्म के माध्यम से ही होता है  इसलिये  सर्वथा भिन्न होते हुए भी दोनों एक दूसरी की पूरक हैं.
बाक़ी पाठकों पर छोड़ता हूँ..
'रुपहली साँझ' ने भूली हुई 'सुरमई शाम' याद दिलाई इसलिये ये पोस्ट  सुश्री कोकिला गुप्ता जी   को सादर समर्पित!

Sunday, 22 January 2017

अस्पताल में एक रात

Image from Google

फफूँद लगी, फटी बोरी से
घुने, सीले अनाज की मानिंद
टपकती है रात
टिन-शेड पर
थमती है, बीतती
सोने देती.

साँय-साँय करता दमा
अस्थि-पंजर में
सूखे-सलेटी स्तनों पर
स्याह-सफ़ेद
धुएँ की लकीरें
बनती-मिटतीं..

रुको, ठहरो, देखो तो ज़रा
CCU के मद्धम प्रकाश में
नर्स और वॉर्डबॉय
आलिंगनबद्ध!
नाराज़ मत होओ, ख़ामोश गुज़र जाओ
'ज़िन्दगी' होने दो.

Sunday, 15 January 2017

चित्रकार..!


गधे रेस खेलते नहीं केवल
बल्कि  जीतते  भी ,
घोड़े अस्तबलों में क़ैद
बेचैन  कसमसाते   हैं .

क़लम पकड़ने की तमीज़ नहीं
तूलिका  थाम  कर बेशर्म
बेहूदा फ़ोटो  खिंचवाते
बे सलीक़ा  रंग लगाते ...

गधे थोड़ा और तनते
घोड़े शर्मिंदा हो जाते हैं.



Friday, 6 January 2017

सुपरमून

प्यारे दोस्तों,
एक प्रगतिवादी, प्रयोगधर्मी रचनाकार होने के नाते मैंने फिर एक बार साहस बटोरा है आपके सामने कुछ नयी कवितायें रखने का.
साहित्य-सेवा में कुछ और क़दम...
आप सब विचारशीलपाठकों से प्रेमानुरोध है कि कृपया दो बार पढ़ें .. दूसरी बार में आपको नया, असली अर्थ दिखेगा.
आपकी टिप्पणियाँ  मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, उनका स्वागत है!
--------------
* ये जानते हुए भी कि आपमें  बहुत से विद्वान् हैं, मैंने इस शब्द का प्रयोग जान-बूझ कर नहीं किया है. मेरा मानना है कि मेरी कविता विद्वत्ता का विषय नहीं है, ये विचारोत्तेजक है.. भावनाप्रधान है!
आपका,
-अमित
Image from Google

आती हुई सर्दी
नवम्बर की किसी रात को
जाने कितने बजे
सुपरमून धरती के क़रीब

नीले लोहे के
लाल फूलों की बारिश 
चन्दन की अगरबत्ती
से उठता उपलों का धुआँ

लिनेन के कुर्ते पर
काश्मीरी शॉल के नीचे
कोई गीला-ठण्डा कीड़ा
होने की बेचैनी

साँसें, आँखें, माथा, कनपटियाँ
सनसनाती सी
दिमाग़ में तैरते विचार
दिल में थमे अहसास

सब कुछ तो है
पर कुछ भी नहीं!

Tuesday, 25 October 2016

Plea

Puzzled
I vulnerable
Naked stark
You fascinate
In frills intricate.

Showing bits
You beguile
Intrigued
I chase.

 Fruit forbidden
You offer
Hesitantly though
I oblige.

You elude
Since then
O life
Me Tarzan you Jane!

This post is dedicated to Sunaina Sharma for prompting me to present a poem when I reach the letter ‘P’.
The other half of this post a picture of the prodigious, princely Pine is sheer coincidence..the pun was never intended :)
Thank you Sunaina for this pretty prescription!

Pine


P is for Pine
Linked to: ABC Wednesday
Linked to: Seasons



Wednesday, 8 June 2016

Allegiance


Black swarms
Of golden bees
Assailed me and forgot
 I didn’t use cell phone
To help them proliferate..
When I ducked
Underwater
To save my life
The sharp coral
Never knew
I worked to
Conserve them too!

Images from Google

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Friday, 6 May 2016

Stealth


Don’t say anything
And just listen
To rustling summer leaves  
Or Ravi Shankar’s sitar
Or lub dub of a lusty heart

Don’t say anything
And just behold
A mellow sunset
Or a Van Gogh
Or limpid pools of eyes

Don’t say anything
And just inhale
First rain on dry earth
Or a Marques de Riscal
Or a warm carnal breath

Don’t say anything 
And just relish
A cool spring draught
Or an intense Keats
Or a quivering eager lip

But please don’t say anything
..words pollute!


PS: In this poem I have used four external stimuli (senses) and three objects (nature/art/physical) to be repeated under each for a resonating effect. Wanted to include the fifth too but then decided against it to avert fleshiness…

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