कोमलांगी सुरमई शाम को
कामुक सलेटी रात ने
अंक में भरना
चाहा ही था
कि दोनों का सखा
गोरा-चिट्टा चाँद
मुस्कुरा उठा
और शरारत से बोला
लो मैं आ
गया
तुम दोनों को
ख़ुश करने
के लिए.
जल कर काली
हुई रात
फुंकार कर बोली
हम हैं मुक्त
किसी की अधीन
नहीं
ख़ुद अपने में
पूर्ण
हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं..
फिर उसने
अपने
जलते हुए होंठ
क़मसिन शाम के
प्यासे होठों पर रख
दिए :
'छुन्न' का शब्द
हुआ
और आहत चाँद कुएँ
में
जा गिरा!
Both images from Google
प्रतीक के माध्यम से इस प्रेम की गहराई को नापने / कहने का प्रयास ... अभिव्यक्ति में दम है ...
ReplyDeleteआपका शानदार और बेहद उत्साहवर्धक कमेन्ट पढ़ कर मन प्रसन्न हो गया, दिगम्बर साहब:)
Deleteआप जैसे उच्च कोटि के कवि की सम्पुष्टि मुझे नए प्रयोग करने के लिए प्रेरित करती है.. हार्दिक आभार! अभिनन्दन!!
There's a statutory body which is now policing web contents ...beware!
ReplyDeleteThank you for the warning Geeta ji..but I don’t care as long as I have understanding readers and well wishers like you. I’ll request Mr. Digamber Naswa and the likes to plead for me if I’m sued, and I’m sure to be acquitted.
DeleteWhy, even Saadat Hasan Manto and Ismat Chugtai were prosecuted for their controversial writings in the 40s and 50s which are now considered great literary pieces. Harold Robbins is being taught in Indian Universities who was considered as a pondy writer in the 80s..
My poem is quite innocent in comparison:)Literary and in aesthetic taste too:)
कविता सुंदर लगी. टाइटल अटपटा ? पर खैर कवि या आर्टिस्ट से क्या शिकायत ? नई उड़ान और कौन भरेगा !
ReplyDeleteआपका कथन प्रशंसनीय है, जोग साहब :) कविता पसन्द करने के लिए आभार!
Deleteआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/05/17.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
ReplyDeleteDhanywaad aapka, Rakesh ji:)
Deleteशाब्दिक अभिव्यक्ति काफी असरदार है अमित जी। अमृता प्रीतम, मंटो और इस्मत ने भी इस तरह के नए प्रयोग किए थे कविता में... देर से ही सही लोगों ने उन रचनाओं को सराहा भी, स्वीकारा भी । रात, शाम और चाँद के प्रतीकों का सुंदर इस्तेमाल किया है आपने । हाँ, शीर्षक मुझे भी जरा अटपटा ही लगा । बहरहाल,सुंदर प्रतीकात्मक रचना है ये कविता
ReplyDeleteस्वागत है आपका मीना जी!
Deleteशीर्षक के बारे में आपका ख़याल भी ठीक हो सकता है लेकिन मेरी राय थोड़ी जुदा है. मेरे देखे दरअसल यही पाठक को हतप्रभ करता है, इस कविता का wow factor है. थोड़ी देर के लिए किसी और शीर्षक की कल्पना करके देखिये और हम पाएंगे कि रचना का punch ही चला गया..
अब अगर सोचें कि 'अटपटा' क्यों लगता है तो ज़ाहिर सी बात है कि परंपरागत रूप से एक वर्जित विषय होने के कारण! अगर 'वर्जना' को हम अपने programmed संस्कारी मस्तिष्क से निकाल पाएं तो शायद अटपटा न भी लगे. और अधिक व्यापक दृष्टिकोण से देखें तो स्पष्ट होगा कि आज के बदले हुए परिवेश में जबकि लोग दूसरों की निजी प्राथमिकताओं से खुद को असम्पृक्त रखने का प्रयास करने लगे हैं तो ये सम्बन्ध इतना असामान्य भी नहीं रह गया है.
मैंने अपना विचार केवल विवेचनात्मक समीक्षा के लिये आपके साथ साझा किया है और आपका मेरे साथ सहमत होना बिलकुल भी अपेक्षित नहीं है, मैं आपके विचार का भी आदर करता हूँ!
आनन्दित हूँ कि आपको मेरी रचना पसंद आई... धन्यवाद:) आभार:)
Sachmuch aap ne aag laga diya, Amit Ji :)
ReplyDeleteभाई रविश मैंने कुछ नहीं किया, जो भी है उन दोनों ने ही किया है:)
DeleteHa ha:):)
On a serious note thank you very many for liking my poem and your hot comment;)
Only a well written poem can make the moon seem less feminine than the night. That dusky night!
ReplyDeleteGlad to note my poem did that, Pranju, and happy to be attested by you:)
DeleteA big thank you:):)
रचना के शीर्षक ने स्पष्ट किया कि आप एक उपेक्षित ,त्याज्य बिषय की ओर पाठकों का ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। शाम और रात (दो समलैंगिक स्त्रीलिंग ) को जो मंज़ूर है ,उनकी जो चाहत है उसे चाँद (समाज ) तभी स्वीकार पाने की क्षमता पैदा कर पायेगा जब दृष्टिकोण की व्यापकता हमसे यह कहेगी कि यह भी एक सच्चाई है जीवन की इसे भी अपना लीजिये। दुनिया में अब इस बिषय पर गहन विमर्श हो रहा है तब आपकी यह प्रयोगधर्मी नई कविता कहीं न कहीं अपना प्रभाव अवश्य छोड़ती नज़र आएगी।
ReplyDeleteआप लीक से हटकर लिखते हैं। कभी - कभी आपकी रचनाओं के साथ प्रकाशित कुछ चित्र मुझ जैसों को आपकी रचना पर टिप्पणी लिखने से रोक लेते हैं क्योंकि भारतीय साहित्य और जनमानस में इतना खुलापन और परिपक्वता आने और उसे स्वीकृति मिलने में समय लगेगा। इस रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
लीक से हटकर लिखने और नए प्रयोग करने का आनंद और बढ़ जाता है जब आप जैसे क़द्रदान हौसलाअफ़ज़ाई करते हैं, यादव जी, शुक्रिया आपका!
Deleteचित्रों पर ज़्यादा ध्यान मत दीजिये, वो मेरे नहीं हैं...
Pehle bhi kai baar aag lagayi hai aapne...ab to jala hi diya!
ReplyDeleteHa ha:) I repeat, I haven't done anything..It is those two who have done it;) Thankyou Alok for your hot comment:)
DeleteI second the comment above by ALOK :)
ReplyDeletekya baat hai sir very romantic :) and MORE
Bikram's
:) Glad to note you found it so, Bikram sir:) Thank you:)
DeleteGreetings from the UK. I enjoyed reading your poem. Well done.
ReplyDeleteThank you. Love love, Andrew. Bye.
Thank you Andrew:) Glad you liked:)
Deleteफिर उसने अपने
ReplyDeleteजलते हुए होंठ
क़मसिन शाम के
प्यासे होठों पर रख दिए :
'छुन्न' का शब्द हुआ
और आहत चाँद कुएँ में जा गिरा!
क्या बात है !! सामाजिक बहस का विषय हो सकता है लेकिन आपने चाँद की पीड़ा को गहरे शब्दों में लिखा है , अद्भुत चित्र और अद्भुत शब्द !! बढ़िया अमित जी
Meri kavita mein chhupe bhavon ki gahraai samajhne ke liye anek dhanywaad Yogendra:) Aabhari hoon!
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