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हँसता हुआ गधा
दिख जाता है
मुझे अक्सर
प्राधिकरण के दफ़्तर
में
कचहरी में, सरकारी
गलियारों में..
लदड़-फ़दड़ कछुआ
फाइलों का बोझ
ढोता
मालिकों-अधिकारियों के
जूते खाता ; चलता जाता.
निढाल हिरन उदास
सूखी-पीली घास
के पास
चतुर लोमड़ सलाम
बजाता
ख़ूनी भेड़िया आँखें झपकाता
साँडों, भैंसों के रेवड़
कीचड़ में धँसे
निकलने की कोशिशों
में
और फँसे और
फँसे
इन सब से
उदासीन
अँधेरे में पड़ा
ख़ामोश
अजगर एक साँस
खींचता
पल भर में
सब को लीलता
!
It is not often I browse Blogger reading list Amit – but tonight I did, and fate has played its hand – for there were your wonderful words.
ReplyDeleteI am certain your words lose something in (Google) translation, which wouldn’t be the case if you had translated your self. Nevertheless, their meanings are clear (although I am uncertain as to whether the view is that of the snake or your own eyes, the snake maybe?)
Thank you for making me happy(er).
Kind regards
Anna :o]
You're right Anna, Google translation cannot convey the essence:(
DeleteWhile I regret my inability to translate the crux of this poem myself, I salute your spirit and enterprise in reaching the approximate thought behind:)
The view can be interpreted either way..that of the python or an onlooker's..but since the poem is captioned as 'Nazaaraa' (meaning a scene) it is perhaps more suitable that this be seen form the eyes of a nonchalant spectator.
Thank you for your interest and lovely comment, Anna:) Glad!
बहुत सुंदर.
ReplyDeleteधन्यवाद राजीव जी:)
Deleteआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/04/14.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
ReplyDeleteधन्यवाद राकेश जी. आभार:)
Deleteबढ़िया लगा
ReplyDeleteशुक्रिया हर्षिता... ख़ुशी हुई:)
Deleteवाह!!
ReplyDeleteवाकई अजगर पलभर में सबको लीलता
क्या फिर सरकारी गलियारों में अजगर का राज दिखेगा?
ना जाने आगे फिर क्या होगा......
ये एक संयोग मात्र है कि कई महीने पहले लिखी गयी ये कविता आज के बदले हुए परिप्रेक्ष्य में ज़्यादा सामयिक प्रतीत होती है.
Delete.. लेकिन मैं इसे एक ताज़ी लिखी रचना कह कर झूठा नहीं बनाना चाहता/ बनना चाहता:)
पसन्द करने के लिए अनेक धन्यवाद, सुधा जी:)
(देखते हैं आगे क्या होता है हम तो एक असम्पृक्त दृष्टा हैं.. हा :) हा :))
आज के कुचक्र को ... राजनीती को ... समाज के माहोल को ... जानवरों के प्रतीकों के रूप में बेहतरीन माध्यम से कहा है ...
ReplyDeleteकुचक्रीय राजनीतिक समाज... और कुचक्रीय सामाजिक राजनीति एक ही 'कम्बल'(!) के ताने-बाने हैं..!
Deleteकविता और ख़याल की सराहना के लिए धन्यवाद दिगम्बर साहब:)
Nice post
ReplyDeleteThank you Ritu:)
DeleteNice post
ReplyDeleteNice post
ReplyDeleteनिढाल हिरन उदास
ReplyDeleteसूखी-पीली घास के पास
चतुर लोमड़ सलाम बजाता
ख़ूनी भेड़िया आँखें झपकाता
बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ !
Thank you Dhruv:)
Deleteसुन्दर।
ReplyDeleteDhanywaad Joshi ji:)
Deleteवर्तमान का विकृत रूप और उस पर तीखा कटाक्ष , सन्नाटा अजगर जैसा ही होता है। न्यूनतम शब्दों में अर्थपूर्ण रचना का सृजन अमित जी की शैली का क़माल है। बधाई।
ReplyDeleteSaraahnaa ke liye aapka tahedil se shukrguzaar hoon, Ravindra ji:)
Deleteज़बरदस्त कटाक्ष!
ReplyDeleteThank you Jog sahab:)
Deleteek asardaar vyangh
ReplyDeleteThank you Kashif, glad you liked:)
DeleteI agree with the first comment. I also tried to translate and read. Then read original with little difficulty. But worth the pain. Today's fact.
ReplyDeleteThank you for your interest and effort, Ranjana:) Glad..!
DeleteIt is largely true what you depict!
ReplyDeleteThank you Mridula:)
DeleteThank you Rajesh:)
ReplyDeleteVery nicec
ReplyDeleteThank you for liking, Abhijit:)
DeleteWondering which one is me
ReplyDeleteI could have opined if I were in your office:):)
Deletekya baat hai ji . aap to kamal ho kya wording hai ji aapki . very nice i like it
ReplyDeleteThank you ji:)
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