मैं बाज़ार नहीं जाता-
बाज़ार नहीं जा
पाता
दीवाली के हफ़्ते.
खाने-पीने की
दुकानों के बाहर
ललचाई आँखों से ताकते
भूखे बच्चे, सूखी गर्भवती
स्त्रियाँ
हाँफते-खाँसते आदमी
मेरा ज़ायक़ा
कसैला कर जाते
हैं
मिठाई की किसे
पड़ी?
लग्ज़री कारों
में चलने वाले
फूल बेचते लाचार-निरीह
बच्चों से
जब करते सौदेबाज़ी
तो मुझे, उनकी क्या
कहूँ,
धन से ही
होने लगती है
विरक्ति सी.
अपने हर्षोल्लास के बीच
बेशक़ीमती गहनों, कपड़ों में
सजे
दर्प-अभिमान से दमकते
चेहरों
महँगे इत्रों से गमकते
शरीरों
के भीतर झाँका
कभी?
वहाँ कोई आत्मा
निवास करती है?
छोटी सी ठेली
या टोकरे में
फल, सब्ज़ी,गुब्बारे,दिये,
कंदील, रुई
बेचने वालों की
उदास, बुझी आँखों
की तरफ़
देखने की फुर्सत
हुई कभी?
चहुँ ओर की
चकाचौंध जगमगाहट
भक्क से सूनी
मायूसी में बदल
जाती है,
इस सारे उपद्रव
का कोई
प्रयोजन ही नहीं
लगता फिर.
करोड़ों की अट्टालिकाओं
में
रहने वाले
लाखों रुपये हँसते-हँसते
'तीन पत्ती' में
उड़ाने वाले
काश कुछ पत्ते
इन मुफ़लिसों के
(ताश के) घरों
में भी जोड़ते!