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Thursday, 25 February 2016

Paris blasphemy


The ping of bullets
lulled the tinkle of Champagne flutes
Took over the lilt of violin
the booming  guns

The red wine oozed
out of burgundy lips
To mahogany ceiling
the caviar flung

chanel No.5 reeked
of blood smoke
Stunk of burnt flesh
Pour Homme

The half written poem
Dried in fingers
The song in throat
got strangled

Breath in breath
Whirring hearts
Abrupt silence..
Paris blasphemy! 


* This poem is dedicated to peace loving people all over the world, and is my tribute to innocent victims of the atrocities of extremists.

                                             Linked to: Poets United


         

Wednesday, 24 February 2016

दीवार-5


उपजाऊ  बन जाए
कहीं सीमेन्ट का गारा
फूट आएं
कहीं अंकुर
तुम्हारे बोये  हुए
काँच में !
सावन से डरता हूँ.
Image courtesy: Google



Wednesday, 17 February 2016

दीवार-4


बेबाक़ आती है
तुम्हारे रियाज़ की आवाज़
देर रात या अलस्सुबह;
तुम्हारी खनकती  हँसी-
सुरमई शामों को  दोस्तों के बीच से.
दीग़र है ये बात कि मैं
‘आलाप’ कम  सुनूँ  औरकोमल’  ज़्यादा,
खिलखिलाहट  कम
और  बीच  की  ख़ामोशी  लगातार.
ये  काँच के टुकड़े
उसे  छील  नहीं पाते...
Image courtesy: Google

                                                              ये भी पढ़ें:  दीवार-1 / दीवार-2 / दीवार-3 / दीवार-5 


Sunday, 14 February 2016

दीवार- 3


हाँ, तुम्हारी तरफ़ हैं फूल,
मेरी तरफ़ खरपतवार.
पर जब कभी-कभार
चलती है हवा उस रुख़ से
तो ले आती है  ख़ुश्बुएं
मिट्टी पर पानी की
यादों पर मिट्टी की
बिलकुल ताज़ी
अक्षत, अनछुई !
ये काँच के टुकड़े
उसे काट नहीं पाते..
     Image courtesy: Google






Thursday, 11 February 2016

दीवार-2


कभी उचक कर
या  लपक  कर
देख भर लेता तुम्हें
बाल सुखाते
या बस आते - जाते;
पर ये काँच..!

नहीं कर पाऊँगा
कोई बेजा हरकत
नहीं छिलें - कटेंगे
हाथ - पाँव
दिल मेरा लेकिन
है लहूलुहान .

Image courtesy: Google





Monday, 8 February 2016

दीवार-1


कि कहीं अनधिकार चेष्टा
या अतिक्रमण की मंशा
मान बैठो
मैं कुछ बोला;
और तुमने हम दोनों के बीच
दीवार उगा दी,
पर उसके छोर पे
वो पैने-नुकीले काँच
रोपने ज़रूरी थे क्या?
Image courtesy: Google




Monday, 1 February 2016

गन्दा नाला



गन्दा नाला हूँ मैँ
विषैला, वीभत्स
दुर्गन्धित और कुरूप.

तुम निर्मल-गहन समुन्दर
हरे-नीले-सुनहरे-अलौकिक.

उलीचता हूँ तुममें
अपना कलुष और पाप
निरन्तर ओछेपन से.

और समा लेते हो तुम सब कुछ
हँस कर अपनी गहराई में.

सिर्फ़ माफ़ करते रहते
छिछोरी हरक़तों को मेरी
बल्कि साफ़ भी करते हो मुझे
ज्वार - भाटा खेल कर.


This post is dedicated to Sunaina Sharma for her true interpretation and evaluation of this poem..