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Wednesday, 2 May 2012

ज़ख्मों की परछाइयाँ


जैसे भर जाते हैं ज़ख्म जिस्म के धीरे-धीरे
पर छोड़ जाते हैं कुछ निशाँ हमेशा के लिए,
यूँ ही चले जाते होंगे दर्द ज़िन्दगी के भी
छोड़ कर यादों की परछाइयाँ दिलों के ऊपर...

34 comments:

  1. wah! bilkul sahi farmaya!!

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  2. बहुत सुंदर और सच्ची बात.............
    कुछ बातें बीत कर भी नहीं बीतती

    अनु

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    1. Thanks a lot Anu, for appreciating it:)

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  3. अब तो इस दिल में लहू कम परछाइयां ज्यादा हैं . बहुत अच्छा लिखते हैं आप .

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    1. A great rejoinder, Uma!...can even make a line in the poem itself'अब तो इस दिल में लहू कम परछाइयां ज्यादा हैं'
      ...nazm pasand karne ke liye bahut-bahut dhanyawaad:)

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  4. गहनता से भरी बेहतरीन रचना ....

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    1. Aapko pasand aai aur aapne saraahnaa ki, iske liye anek dhanyawaad, Indu:)

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  5. irony of life, beautifully put into words !

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  6. wow... ekdum sach kaha hai aapne..

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  7. very true lines written in a succinct way..

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  8. Painful yet true...Very poetic. Sir.

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  9. Profoundly beautiful!! :)

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