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पर्वतों की जड़ों
को
मीठी नदियाँ सींचती थीं
एक बहेलिये और गाय
के बीच प्रेम
हो गया.
गाय निछावर तो थी
पर विश्वास न कर
पाती.
बहेलिया समझाता
देख, अगर मैं
होता कसाई
या, तू मुर्ग़ाबी
तो तेरा शक़
मानी होता
पर मैं भला
तुझ से
बेवफ़ा क्यों होऊँगा ?
दिन और रात
ढलते गए
प्रेम प्रगाढ़ हो चला.
फिर एक दिन
गाय की मुलाक़ात
एक बिजार से हो
गई
और दोनों ने मिलकर
बहेलिये को
अपने नुक़ीले सींगों से
मार डाला..
पर्वतों के शिखरों
पे
सफ़ेद धुआँ
फूलता रहा!