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Tuesday, 28 March 2017
Tuesday, 7 March 2017
वो सुरमई शाम
Image from Google
बुना जब
करते
फन्दा-दर-फन्दा
अँधेरा-उजाला
ख़ुद आप
को
पहरे पे ख़ामोशी
,
आग़ोश में
क़ैद हुआ करती
-
क़ायनात सारी
वो सुरमई शाम
आँखें, शोख़ आँखों
से
बयाँ करतीं
कितने अफ़्साने
चार होंठ प्यासे
नामुराद - झूठे,
बेशर्म ,
नदीदे , कमज़र्फ
पी पी के
मुकर जाते
ज़िद्दी ज़ुल्फ़ मग़रूर
-
शरीर, शैतान,
बीच में आती
करती परेशान
दहकते अरमान
सर्द आहें
महकते साँस
बेचैन निगाहें
वो सुरमई शाम
फिर कभी आयेगी?
________________________________________________
Key:
फन्दा-दर-फन्दा
= stitch by stitch
आग़ोश = embrace
क़ायनात = universe
अफ़्साने =
romance
नामुराद = dissatisfied
नदीदे =
greedy
कमज़र्फ =
ungrateful
मुकर = deny
मग़रूर = arrogant
शरीर = wicked
_____________________________________________
भरसक कोशिश करता हूँ
कि दैहिक न
लिखूँ लेकिन कभी-कभी क़लम
फिसल ही जाती
है कमबख़्त ...
यथासम्भव प्रयास रहता है
कि लिखा हुआ
बस मेरा ही
रह जाये पर
कभी बिना प्रकाशित
किये लगता है
कि अधूरा रह
गया..
'वो रुपहली साँझ आये' एक
पारलौकिक, रूहानी, लगभग आध्यात्मिक
रचना है, और
'सुरमई शाम' पूर्णतयाः
जिस्मानी, ऐन्द्रिय, विषयासक्त ; लेकिन
मुझे लगता है
कि क्योंकि रूह
का अहसास जिस्म के माध्यम
से ही होता
है इसलिये सर्वथा
भिन्न होते हुए
भी दोनों एक
दूसरी की पूरक
हैं.
बाक़ी पाठकों पर छोड़ता
हूँ..
'रुपहली साँझ' ने भूली
हुई 'सुरमई शाम'
याद दिलाई इसलिये
ये पोस्ट सुश्री कोकिला गुप्ता
जी को सादर
समर्पित!
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