दीवला हूँ कोरी मिट्टी का,
पार-साल का.
मुझ तक आते आते
तुम्हारी मुँडेर ही ख़त्म हो गयी
और मैं बच रहा
जगमग पंक्ति से.
करता रहा इन्तेज़ार साल भर
कि शायद
चौबारे या चौराहे
पर रख आओ.
नववर्ष, जन्मदिवस,
पूजा-पाठ में जलाओ
या किसी आत्मा-शांति के लिये
गंगा में ही बहाओ.
पर मैं तो ताक़ पड़ा भूला रहा
डरता हूँ इस साल
नयों के नीचे
दबा न रह जाऊँ!