२०.१०.२०११
ओ मेरे खाली मकाँ
उदास कर जाती है मुझे
तुम्हारी वीरानगी.
इतने वर्षों तक
तुम्हे सँवारा,
चमकाया,
एक-एक तस्वीर
एक-एक शीशा
अपने हाथों से लगाया,
एक-एक पत्ता
एक-एक बूटा
तुम में सजाया.
और तुमने मुझे
आंधी-पानी-बारिश,
तन जलाती धूप-
मन गलाती सर्दी
से बचाया,
तुमने दी मेरे तन को सुरक्षा,
मन को सुकून
और
आत्मा को शांति.
मैं कितना खुदगर्ज़
तुमसे पूछे बिना,
तुम्हारी मर्ज़ी जाने बिना,
बस यूं ही चला आया.
फिर सोचता हूँ ये भी
कि
ऐसा ही हाल एक दिन
मेरा भी होगा-
बल्कि सच में
इस से भी बदतर !
मेरा प्राण एक दिन
यूं ही बिना बात किये, बिना बताये
मेरे शरीर को
अकेला, असहाय, निरुपाय, नि:स्पंद,
छोड़ कर चला जाएगा...
मैं तो फिर भी
किसी शाम
तुम्हारे पास से गुज़र जाता हूँ,
तुम्हे निहार लेता हूँ,
तुम्हारे साथ बिताए
अच्छे-बुरे
प्यारे-दर्दीले पलों को
फिर से जी लेता हूँ,
मेरा प्राण
मेरे शरीर को जब
छोड़ देगा
तो मैं कितना भी तड़प ऊँ
कितनी भी फ़रियाद करूँ,
कितनी भी विनती, इसरार करूँ
वो बेदर्द
इसे पलट कर भी न देखेगा.
यूं ही
बेवफा, बेअसर
चला जाएगा...
तुम तो
फिर भी
कुछ दिन बाद ही सही
फिर से सजोगे,
फिर से संवरोगे,
तुम्हे फिर एक नया कद्रदान मिलेगा.
लेकिन मैं
धू-धू करके
जल जाऊँगा,
या
मिट्टी में मिल जाऊंगा
या
नदियों में गल जाऊंगा
या
हवाओं में उड़ जाऊंगा...
तुम तो रह जाओगे,
मैं चला जाऊंगा
कभी भी न आने के लिए...