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Sunday, 22 September 2019

बेचारा

                                                           
Image from Google

वो सब चाँद को 
अंग्रेज़ी में निहार रहे हैं..
अनपढ़ है शायद 
कुछ झेंप रहा है 
चलो बेचारे को 
शर्मिन्दग़ी  से बचाएं 
कुछ देर के लिए 
ख़ामोश हो जाएँ 



Thursday, 2 November 2017

दीवाली बाज़ार

मैं बाज़ार नहीं जाता-
बाज़ार नहीं जा पाता
दीवाली के हफ़्ते.

खाने-पीने की दुकानों के बाहर
ललचाई आँखों से ताकते
भूखे बच्चे, सूखी गर्भवती स्त्रियाँ
हाँफते-खाँसते आदमी
मेरा ज़ायक़ा
कसैला कर जाते हैं
मिठाई की किसे पड़ी?

लग्ज़री कारों
में चलने वाले
फूल बेचते लाचार-निरीह बच्चों से
जब करते सौदेबाज़ी
तो मुझे, उनकी क्या कहूँ,
धन से ही होने लगती है
विरक्ति सी

अपने हर्षोल्लास के बीच
बेशक़ीमती गहनों, कपड़ों में सजे
दर्प-अभिमान से दमकते चेहरों
महँगे इत्रों से गमकते शरीरों
के भीतर झाँका कभी?
वहाँ कोई आत्मा निवास करती है?

छोटी सी ठेली या टोकरे में
फल, सब्ज़ी,गुब्बारे,दिये, कंदील, रुई
बेचने वालों की
उदास, बुझी आँखों की तरफ़
देखने की फुर्सत हुई कभी?

चहुँ ओर की चकाचौंध जगमगाहट
भक्क से सूनी मायूसी में बदल जाती है,
इस सारे उपद्रव का कोई
प्रयोजन ही नहीं लगता फिर.

करोड़ों की अट्टालिकाओं में
रहने वाले
लाखों रुपये हँसते-हँसते
'तीन पत्तीमें उड़ाने वाले
काश कुछ पत्ते
इन मुफ़लिसों के
(ताश के) घरों में भी जोड़ते!


Friday, 15 September 2017

क़ीमती

ड्रॉअर में बस यूँ ही पड़ी
सस्ती शराब की बोतल हूँ
'बार' में सजा क़ीमती स्कॉच
का ख़ाली डिब्बा नहीं!

चाहें तो पियें
और मस्त हो जाएँ
या फिर डिब्बों को निहारें
मन बहलायें.

हाँ, अगर पियें
तो ज़रा संभल कर
ज़ोर का धक्का लगेगा,

डिब्बों से कोई डर नहीं
सजावटी सामान है
बरसों यूँ ही रहेगा.


Monday, 30 January 2017

वफ़ा

Image from Google

पर्वतों की जड़ों को
मीठी नदियाँ सींचती थीं
एक बहेलिये और गाय
के बीच प्रेम हो गया.
गाय निछावर तो थी
पर विश्वास कर पाती.
बहेलिया समझाता
देख, अगर मैं होता  कसाई
या, तू मुर्ग़ाबी
तो तेरा शक़ मानी होता
पर मैं भला तुझ से
बेवफ़ा क्यों होऊँगा ?
दिन और रात ढलते गए
प्रेम प्रगाढ़ हो चला.

फिर एक दिन
गाय की मुलाक़ात
एक बिजार से हो गई
और दोनों ने मिलकर
बहेलिये को
अपने नुक़ीले सींगों से
मार डाला..

पर्वतों के शिखरों पे
सफ़ेद धुआँ
फूलता रहा!

Wednesday, 18 January 2017

समूह

तमाम कोशिशों के बावजूद
बलिष्ठ केकड़ों की
फ़ौलादी जकड़ से जब मैं
निकल पाया
तो मैंने इन्तज़ार किया,
और  एक-दूसरे को खा-खा कर
जब वो इतने मोटे हो गए
की टोकरे में समाएं
तो एक दिन मैं  बस चुपचाप
फिसल कर निकल गया.

भागने की जुगत में
मुझे चाहते भी
भेड़ों के एक रेवड़ में
शामिल होना पड़ा...
कोई बात नहीं, मजबूरी!

थोड़ी दूर चलकर
मुझे ताज्जुब हुआ
ये देख कर
कि इतने अनुशासित रेवड़ की
सारी भेड़ें नितान्त अन्धी थीं ;
लेकिन मैं जैसे
बेमौत मरा  ये जान कर
कि सबसे आगे चलने वाले
उनके नेता ने
काला चश्मा भी पहना हुआ था!
Both images from Google

Tuesday, 8 March 2016

मुक्ताकाश


स्थूल रह गया नीचे
अस्तित्व छूट गया पीछे
और अब तो तू भी नहीं
सिर्फ़ मुक्ताकाश
अनंत शून्य. . चैतन्य.

कोई वासना, कामना,
शिक़ायत, प्रार्थना,
आभार ही.
कौन करे ?
किससे ?

क्षण निरन्तर नहीं
कैसे रोको उसे ?
आया और गया
घटना घट गयी
बस.. बात ख़त्म  हो गयी !
Image from Google

*This  poem is dedicated to Purba Chakraborty, whose ‘Paragliding…’ inspired me to write this on one of my out-of-body experiences in deep meditation in remote Himalayas.

*With apologies to my Guru who advises us not to share these…sorry Boss, the writer in me couldn’t resist the temptation of wording a part, and overpowered the seeker in me…can’t hide from You, You are omniscient! We err to be forgiven by Your benevolence.

Wednesday, 17 February 2016

दीवार-4


बेबाक़ आती है
तुम्हारे रियाज़ की आवाज़
देर रात या अलस्सुबह;
तुम्हारी खनकती  हँसी-
सुरमई शामों को  दोस्तों के बीच से.
दीग़र है ये बात कि मैं
‘आलाप’ कम  सुनूँ  औरकोमल’  ज़्यादा,
खिलखिलाहट  कम
और  बीच  की  ख़ामोशी  लगातार.
ये  काँच के टुकड़े
उसे  छील  नहीं पाते...
Image courtesy: Google

                                                              ये भी पढ़ें:  दीवार-1 / दीवार-2 / दीवार-3 / दीवार-5 


Sunday, 14 February 2016

दीवार- 3


हाँ, तुम्हारी तरफ़ हैं फूल,
मेरी तरफ़ खरपतवार.
पर जब कभी-कभार
चलती है हवा उस रुख़ से
तो ले आती है  ख़ुश्बुएं
मिट्टी पर पानी की
यादों पर मिट्टी की
बिलकुल ताज़ी
अक्षत, अनछुई !
ये काँच के टुकड़े
उसे काट नहीं पाते..
     Image courtesy: Google






Thursday, 11 February 2016

दीवार-2


कभी उचक कर
या  लपक  कर
देख भर लेता तुम्हें
बाल सुखाते
या बस आते - जाते;
पर ये काँच..!

नहीं कर पाऊँगा
कोई बेजा हरकत
नहीं छिलें - कटेंगे
हाथ - पाँव
दिल मेरा लेकिन
है लहूलुहान .

Image courtesy: Google





Monday, 8 February 2016

दीवार-1


कि कहीं अनधिकार चेष्टा
या अतिक्रमण की मंशा
मान बैठो
मैं कुछ बोला;
और तुमने हम दोनों के बीच
दीवार उगा दी,
पर उसके छोर पे
वो पैने-नुकीले काँच
रोपने ज़रूरी थे क्या?
Image courtesy: Google




Tuesday, 15 December 2015

घर


भरा है घर
सामान ही सामान
कहाँ रहूँ मैं 

This post is dedicated to Geetashree Chatterjee who lambasted me for doing away with symbolism in my haiku here...I thank her for this favour!


Friday, 11 December 2015

भाईचारा


जानता हूँ मैं कि
तुम उच्च-वर्गीय कुलीन
शैम्पू-पाउडर से गमकते
घूमते हो मर्सिडीज़ में
और मैं खुजैला अपाहिज
जिसके होंगे कई बाप
मक्खियों से भिनकता
रहता हूँ हलवाई के नीचे की
नाली में.

हाँ, मानता हूँ मैं कि
तुम रहते हो
खूबसूरत मालकिन के
एयर-कंडीशन्ड बँगले में, बाँहों में
और मैं उस दिन को
खुशकिस्मत मानता हूँ
जब मुझे दस बीस
लात-डण्डे न पड़ें.

तुम्हारा मूड बिगड़ जाता है
जब मालकिन जाती है विदेश
हफ्ते दस दिन को
हो जाते हो तुम गुमसुम
और इम्पोर्टेड न्यूट्रिशन  खाने में
करते हो नख़रे
मैं भी तो हो जाता हूँ
थोड़ा कटखना
जब जूठे दोने-पत्तल
नहीं मिलते दंगे के दिनों में.

मुझे तुमसे प्यार नहीं :
तुम कहाँ-मैं कहाँ
न ही रश्क़ है मुझे तुमसे :
क़िस्मत अपनी-अपनी,
पर फिर भी
तुम्हारा आदर करता हूँ मैं
क्योंकि हमारी नस्लें
जुदा होते हुए भी
हैं तो आख़िर हम कुत्ते ही !

न जाने तुम
मुझसे घृणा क्यों करते हो..


Image courtesy: Google