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Sunday, 22 September 2019
Sunday, 4 March 2018
क्रश / Crush
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love,
nature,
short poem
Tuesday, 27 February 2018
'वो'
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Mysticism,
philosophy,
poem,
poetry
Thursday, 2 November 2017
दीवाली बाज़ार
मैं बाज़ार नहीं जाता-
बाज़ार नहीं जा
पाता
दीवाली के हफ़्ते.
खाने-पीने की
दुकानों के बाहर
ललचाई आँखों से ताकते
भूखे बच्चे, सूखी गर्भवती
स्त्रियाँ
हाँफते-खाँसते आदमी
मेरा ज़ायक़ा
कसैला कर जाते
हैं
मिठाई की किसे
पड़ी?
लग्ज़री कारों
में चलने वाले
फूल बेचते लाचार-निरीह
बच्चों से
जब करते सौदेबाज़ी
तो मुझे, उनकी क्या
कहूँ,
धन से ही
होने लगती है
विरक्ति सी.
अपने हर्षोल्लास के बीच
बेशक़ीमती गहनों, कपड़ों में
सजे
दर्प-अभिमान से दमकते
चेहरों
महँगे इत्रों से गमकते
शरीरों
के भीतर झाँका
कभी?
वहाँ कोई आत्मा
निवास करती है?
छोटी सी ठेली
या टोकरे में
फल, सब्ज़ी,गुब्बारे,दिये,
कंदील, रुई
बेचने वालों की
उदास, बुझी आँखों
की तरफ़
देखने की फुर्सत
हुई कभी?
चहुँ ओर की
चकाचौंध जगमगाहट
भक्क से सूनी
मायूसी में बदल
जाती है,
इस सारे उपद्रव
का कोई
प्रयोजन ही नहीं
लगता फिर.
करोड़ों की अट्टालिकाओं
में
रहने वाले
लाखों रुपये हँसते-हँसते
'तीन पत्ती' में
उड़ाने वाले
काश कुछ पत्ते
इन मुफ़लिसों के
(ताश के) घरों
में भी जोड़ते!
Monday, 9 October 2017
काई
लो आज फिर घटा
घिर आई
टीस कोई भूली
फिर से उठ
आई
दिन महीने साल यूँ
ही भाग रहे
हैं
ज़िन्दग़ी किसी मोड़
पे ठिठकी सी
नज़र आई
आमों के दरख़्त
तो अब वीरान
पड़े हैं
कोयल मुझे इक
दिन कीकर पे
नज़र आई
नग़मे प्यार के सब भूल
चुके हैं
उजड़ी हुई कहानी
याद मगर फिर
आई
मेड़ों उगी दूब
भी अब सूख
चली है
दिल की बावड़ी
में बस काई
ही काई!
(Image from Google)
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Friday, 15 September 2017
क़ीमती
ड्रॉअर में बस
यूँ ही पड़ी
सस्ती शराब की
बोतल हूँ
'बार' में सजा
क़ीमती स्कॉच
का ख़ाली डिब्बा
नहीं!
चाहें तो पियें
और मस्त हो
जाएँ
या फिर डिब्बों
को निहारें
मन बहलायें.
हाँ, अगर पियें
तो ज़रा संभल
कर
ज़ोर का धक्का
लगेगा,
डिब्बों से कोई
डर नहीं
सजावटी सामान है
बरसों यूँ ही
रहेगा.
Wednesday, 26 April 2017
लेस्बियन्स
कोमलांगी सुरमई शाम को
कामुक सलेटी रात ने
अंक में भरना
चाहा ही था
कि दोनों का सखा
गोरा-चिट्टा चाँद
मुस्कुरा उठा
और शरारत से बोला
लो मैं आ
गया
तुम दोनों को
ख़ुश करने
के लिए.
जल कर काली
हुई रात
फुंकार कर बोली
हम हैं मुक्त
किसी की अधीन
नहीं
ख़ुद अपने में
पूर्ण
हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं..
फिर उसने
अपने
जलते हुए होंठ
क़मसिन शाम के
प्यासे होठों पर रख
दिए :
'छुन्न' का शब्द
हुआ
और आहत चाँद कुएँ
में
जा गिरा!
Both images from Google
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Sunday, 9 April 2017
नज़ारा..
Image from Google
हँसता हुआ गधा
दिख जाता है
मुझे अक्सर
प्राधिकरण के दफ़्तर
में
कचहरी में, सरकारी
गलियारों में..
लदड़-फ़दड़ कछुआ
फाइलों का बोझ
ढोता
मालिकों-अधिकारियों के
जूते खाता ; चलता जाता.
निढाल हिरन उदास
सूखी-पीली घास
के पास
चतुर लोमड़ सलाम
बजाता
ख़ूनी भेड़िया आँखें झपकाता
साँडों, भैंसों के रेवड़
कीचड़ में धँसे
निकलने की कोशिशों
में
और फँसे और
फँसे
इन सब से
उदासीन
अँधेरे में पड़ा
ख़ामोश
अजगर एक साँस
खींचता
पल भर में
सब को लीलता
!
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satire
Tuesday, 7 March 2017
वो सुरमई शाम
Image from Google
बुना जब
करते
फन्दा-दर-फन्दा
अँधेरा-उजाला
ख़ुद आप
को
पहरे पे ख़ामोशी
,
आग़ोश में
क़ैद हुआ करती
-
क़ायनात सारी
वो सुरमई शाम
आँखें, शोख़ आँखों
से
बयाँ करतीं
कितने अफ़्साने
चार होंठ प्यासे
नामुराद - झूठे,
बेशर्म ,
नदीदे , कमज़र्फ
पी पी के
मुकर जाते
ज़िद्दी ज़ुल्फ़ मग़रूर
-
शरीर, शैतान,
बीच में आती
करती परेशान
दहकते अरमान
सर्द आहें
महकते साँस
बेचैन निगाहें
वो सुरमई शाम
फिर कभी आयेगी?
________________________________________________
Key:
फन्दा-दर-फन्दा
= stitch by stitch
आग़ोश = embrace
क़ायनात = universe
अफ़्साने =
romance
नामुराद = dissatisfied
नदीदे =
greedy
कमज़र्फ =
ungrateful
मुकर = deny
मग़रूर = arrogant
शरीर = wicked
_____________________________________________
भरसक कोशिश करता हूँ
कि दैहिक न
लिखूँ लेकिन कभी-कभी क़लम
फिसल ही जाती
है कमबख़्त ...
यथासम्भव प्रयास रहता है
कि लिखा हुआ
बस मेरा ही
रह जाये पर
कभी बिना प्रकाशित
किये लगता है
कि अधूरा रह
गया..
'वो रुपहली साँझ आये' एक
पारलौकिक, रूहानी, लगभग आध्यात्मिक
रचना है, और
'सुरमई शाम' पूर्णतयाः
जिस्मानी, ऐन्द्रिय, विषयासक्त ; लेकिन
मुझे लगता है
कि क्योंकि रूह
का अहसास जिस्म के माध्यम
से ही होता
है इसलिये सर्वथा
भिन्न होते हुए
भी दोनों एक
दूसरी की पूरक
हैं.
बाक़ी पाठकों पर छोड़ता
हूँ..
'रुपहली साँझ' ने भूली
हुई 'सुरमई शाम'
याद दिलाई इसलिये
ये पोस्ट सुश्री कोकिला गुप्ता
जी को सादर
समर्पित!
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Monday, 30 January 2017
वफ़ा
Image from Google
पर्वतों की जड़ों
को
मीठी नदियाँ सींचती थीं
एक बहेलिये और गाय
के बीच प्रेम
हो गया.
गाय निछावर तो थी
पर विश्वास न कर
पाती.
बहेलिया समझाता
देख, अगर मैं
होता कसाई
या, तू मुर्ग़ाबी
तो तेरा शक़
मानी होता
पर मैं भला
तुझ से
बेवफ़ा क्यों होऊँगा ?
दिन और रात
ढलते गए
प्रेम प्रगाढ़ हो चला.
फिर एक दिन
गाय की मुलाक़ात
एक बिजार से हो
गई
और दोनों ने मिलकर
बहेलिये को
अपने नुक़ीले सींगों से
मार डाला..
पर्वतों के शिखरों
पे
सफ़ेद धुआँ
फूलता रहा!
Wednesday, 18 January 2017
समूह
तमाम कोशिशों के बावजूद
बलिष्ठ केकड़ों की
फ़ौलादी जकड़ से
जब मैं
निकल न पाया
तो मैंने इन्तज़ार किया,
और एक-दूसरे को खा-खा कर
जब वो इतने मोटे
हो गए
की टोकरे में न
समाएं
तो एक दिन
मैं बस
चुपचाप
फिसल कर निकल
गया.
भागने की जुगत
में
मुझे न चाहते
भी
भेड़ों के एक
रेवड़ में
शामिल होना पड़ा...
कोई बात नहीं,
मजबूरी!
थोड़ी दूर चलकर
मुझे ताज्जुब हुआ
ये देख कर
कि इतने अनुशासित
रेवड़ की
सारी भेड़ें नितान्त अन्धी
थीं ;
लेकिन मैं जैसे
बेमौत मरा ये
जान कर
कि सबसे आगे
चलने वाले
उनके नेता ने
काला चश्मा भी पहना
हुआ था!
Both images from Google
Friday, 6 January 2017
सुपरमून
प्यारे दोस्तों,
एक प्रगतिवादी, प्रयोगधर्मी रचनाकार
होने के नाते
मैंने फिर एक
बार साहस बटोरा
है आपके सामने
कुछ नयी कवितायें
रखने का.
साहित्य-सेवा में
कुछ और क़दम...
आप सब विचारशील
* पाठकों
से प्रेमानुरोध है
कि कृपया दो
बार पढ़ें .. दूसरी
बार में आपको
नया, असली अर्थ
दिखेगा.
आपकी टिप्पणियाँ मेरे
लिए बहुत महत्वपूर्ण
हैं, उनका स्वागत
है!
--------------
* ये जानते हुए भी
कि आपमें बहुत से
विद्वान् हैं, मैंने
इस शब्द का
प्रयोग जान-बूझ
कर नहीं किया
है. मेरा मानना
है कि मेरी
कविता विद्वत्ता का
विषय नहीं है,
ये विचारोत्तेजक है..
भावनाप्रधान है!
आपका,
-अमित
Image from Google
आती हुई सर्दी
नवम्बर की किसी
रात को
न जाने कितने
बजे
सुपरमून धरती के
क़रीब
नीले लोहे के
लाल फूलों की बारिश
चन्दन की अगरबत्ती
से उठता उपलों
का धुआँ
लिनेन के कुर्ते
पर
काश्मीरी शॉल के
नीचे
कोई गीला-ठण्डा
कीड़ा
होने की बेचैनी
साँसें, आँखें, माथा, कनपटियाँ
सनसनाती सी
दिमाग़ में तैरते
विचार
दिल में थमे
अहसास
सब कुछ तो
है
पर कुछ भी
नहीं!
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