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Monday, 1 February 2016

गन्दा नाला



गन्दा नाला हूँ मैँ
विषैला, वीभत्स
दुर्गन्धित और कुरूप.

तुम निर्मल-गहन समुन्दर
हरे-नीले-सुनहरे-अलौकिक.

उलीचता हूँ तुममें
अपना कलुष और पाप
निरन्तर ओछेपन से.

और समा लेते हो तुम सब कुछ
हँस कर अपनी गहराई में.

सिर्फ़ माफ़ करते रहते
छिछोरी हरक़तों को मेरी
बल्कि साफ़ भी करते हो मुझे
ज्वार - भाटा खेल कर.


This post is dedicated to Sunaina Sharma for her true interpretation and evaluation of this poem..




Tuesday, 15 January 2013

रास्ता..


The following poem is an allegorical one. I shall not explain it in order to delight you and myself with different interpretations. Your valued views are most welcome!
(PS: My apologies for having been failed by its spirit to translate.)

अब मेरे डेरे से 
तुम्हारे गाँव के बीच
बस एक कच्ची, छोटी सी
पगडण्डी का रास्ता बचा है.

दूरी कितनी है 
ये इस बात पर निर्भर है
कि चलना है
या सोचना है.

इस रास्ते पर 
ज़्यादातर कसाइयों की दूकानें,
मोचियों के खूँट, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे,
बढ़ई-कारीगर-भैंस-उपले-गोबर
हलवाई-दर्ज़ी-पनवाड़ी-मनिहार
कुंजड़े-परचूनिए ही हैं.

लेकिन एक हाथ पर 
फूलों भरी क्यारियाँ,
ओस गिरी घास,
तितलियाँ-भँवरे,
खुशबू, नदी, संगीत,
परिंदे, चहचहाहट,
सूरज, चाँद, सितारे,
सन्नाटा और ख़ामोशी भी हैं.

गुज़रने लगो तो 
रास्ता कितना लम्बा, उबाऊ, नीरस
और थकान भरा है,
और सोचने बैठो 
तो कितना छोटा, दिलकश और हसीन!
मेरे डेरे से तुम्हारे गाँव तक...