The following poem is
an allegorical one. I shall not explain it in order to delight you and myself
with different interpretations. Your valued views are most welcome!
(PS: My apologies for
having been failed by its spirit to translate.)
अब मेरे डेरे
से
तुम्हारे गाँव
के बीच
बस एक कच्ची,
छोटी सी
पगडण्डी का रास्ता बचा
है.
दूरी कितनी है
ये इस बात पर निर्भर
है
कि चलना है
या सोचना है.
इस रास्ते पर
ज़्यादातर कसाइयों की
दूकानें,
मोचियों के खूँट,
मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे,
बढ़ई-कारीगर-भैंस-उपले-गोबर
हलवाई-दर्ज़ी-पनवाड़ी-मनिहार
कुंजड़े-परचूनिए ही
हैं.
लेकिन एक हाथ पर
फूलों भरी क्यारियाँ,
ओस गिरी घास,
तितलियाँ-भँवरे,
खुशबू, नदी, संगीत,
परिंदे, चहचहाहट,
सूरज, चाँद, सितारे,
सन्नाटा और ख़ामोशी भी
हैं.
गुज़रने लगो तो
रास्ता कितना लम्बा,
उबाऊ, नीरस
और थकान भरा है,
और सोचने बैठो
तो कितना छोटा, दिलकश
और हसीन!
मेरे डेरे से तुम्हारे
गाँव तक...